शनिवार, 26 मार्च 2011

शर्माना पड़ता हैं


                      
अकड़ कर नहीं कहीं और कभी
नरमी से काम चलाना पड़ता हैं

ये तो अपनी मजबूरियां हैं 
कि खुद के गुस्से को भी दबाना पड़ता हैं

हर जगह खुद को क्या बताना
कहीं – कहीं  अपनी पहचान छुपाना पड़ता हैं

ये जगह का फर्क है कि हर जगह थप्पड़ नहीं चलते
बातों से भी काम चलाना पड़ता हैं

मंदिर में हो तो सर झुकना
और मस्जिद में घुटने टिकाना पड़ता हैं

दिल ग़मों का मकबरा हैं
फिर भी लोगों को मुस्काना पड़ता हैं

और ये खूबसूरती,एहसास,जज्बात और नज़ाकत है दोस्त
कि प्यार में हो तो मेरी जां शर्माना पड़ता हैं 

1 टिप्पणी:

  1. प्यार का क्या है ग़ालिब?
    इसमें तो सर भी कटाना पड़ता है.

    अब क्या करें साला दिल के कारण
    दिमाग की बत्ती को बुझाना पड़ता है.

    गर जीना है इस रूमानी अहसास को
    तो पुरुषार्थ दिखाना पड़ता है.

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